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अब और नहीं

sukhiram & dukhiram
sukhiram & dukhiram
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मेरे गुनहगारों को तो
फाँसी होने से गई !
और अगर हुई भी
तो शायद.. तब तक
मैं जिंदा न रह पाऊँ !
क्योंकि …लोगों कि ये बेपनाह हमदर्दी
मुझे नश्तर की तरह चुभती है !
क्यूं लोग ….जानते हुए भी
एक ही सवाल को
बार-बार दोहरातें हैं ?
क्यूं ?
हमदर्दी के ज़हर में
बुझे हुए ये खंज़र
हर रोज़ मुझे
सैंकड़ों बार क़त्ल करतें है !
मेरी सांसे तो
इन्साफ के इंतज़ार में चल रही हैं !
एक इन्साफ के लिए
हर दिन,.. पल-पल मर रही हूँ मैं !
पर अब ये पीड़ा
हद से गुज़र गई है !
सोचती हूँ कि – इस तरह जीनें से,
रोज़…. कई-कई बार मरने से अच्छा है
कि – एक बार मर जाऊँ !
ऐसा करने से शायद
मेरे देश के क़ानून को
थोड़ी तो शर्म आयेगी !
और अगर फिर भी
शर्म न आई तो
एक बार फिर
भारतमाता
अपनें दमन में
मुह छिपा कर
रो लेगी !

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